देश, धर्म के लिए लड़ो या चूड़ियां पहन लो”, जानिए वीरांगना रानी अवंती बाई शौर्य गाथा

आज एक ऐसी वीरांगना रानी अवंती बाई का बलिदान दिवस है, जिनके जीवन के कमसुने पहलुओं से आपको रुबरु करा रहे हैं.

अभिषेक लोधी /: देश की स्वाधीनता के मार्ग को कई वीर-वीरांगनाओं ने अपने रक्त की अंतिम बूंद तक समर्पित करके सींचा है. लेकिन इन बलिदानों में वो नाम चुनिंदा ही रहे है जिनके साथ इतिहासकारों ने न्याय किया और उन्हें यथोचित सम्मान दिया है. इसके बावजूद इतिहास के पन्नों में कई नाम ऐसे दिखाई पड़ते है, जिन्हें लेकर जनमानस में दूर-दूर तक कोई जानकारी नहीं है, उन्हें लेकर सम्मान तो दूर कोई उनके नाम और कार्यों से भी परिचित नहीं है. भारत के स्वर्णिम इतिहास को इस दरिद्रता से उभारकर इन गुमनाम वीर क्रांतिकारियों को उनके संघर्षों और सर्वोच्च बलिदान के सर्वोच्च सम्मान दिलाना हम सबकी जिम्मेदारी है.

आज एक ऐसी वीरांगना रानी अवंती बाई का बलिदान दिवस है, जिनके जीवन के कमसुने पहलुओं से आपको रुबरु करा रहे हैं. यह बात उन दिनों की है जब देश के कुछ क्षेत्रों में क्रांति का शुभारम्भ हो चुका था और पूरे महाकौशल क्षेत्र में स्वाधीनता को लेकर क्रांतिकारियों की हलचलें बढ़ गईं थी.

इस बीच मध्यप्रदेश के रेवांचल क्षेत्र में रामगढ़ की रानी अवंती बाई, गढ़ पुरवा के राजा शंकरशाह और राजकुमार रघुनाथ शाह के नेतृत्व क्रांति को लेकर कई गुप्त सभाएं आयोजित की जा रही थी, जिसकी रणनीतिक रुप से सारी जिम्मेदारी रानी अवंती बाई पर थी. इन गुप्त सभाओं में एक पत्र के साथ चूड़ियों को अलग-अलग रियासतों के राजाओं जागीरदारों तक भेजा जाता था.

पत्र पर संदेश होता था कि – “अंग्रेजों से संघर्ष के लिए तैयार रहो या चूड़ियां पहनकर घर में बैठो.” आत्म स्वाभिमान को झकझोर देने वाले इस प्रयास में पत्र जहां एकता के लिए प्रेरित करता प्रतीत होता तो वहीं चूड़ियां पुरुषार्थ जागृत करने का सशक्त माध्यम बनी. नतीजन पूरे रेवांचल में सन् 1857 की क्रांति की ज्वाला धधक उठी .बचपन से ही करती थी तलवारबाजी और घुड़सवारी करनारानी अवंती बाई की जीवन यात्रा के बारे में आपको बताएं तो मध्यप्रदेश में 16 अगस्त 1831 को मनकेहणी,जिला सिवनी के जमींदार राव जुझार सिंह के यहां इस वीर बालिका का जन्म हुआ, जुझार सिंह लोधी राजपूत समुदाय के शासक थे.

रानी अवंती बाई ने अपने बचपन से ही तलवारबाजी, घुड़सवारी इत्यादि कलाएं सीख ली थी. बाल्यकाल से ही वीर व साहसी इस वीरांगना की जैसे-जैसे आयु बढ़ती गई उनकी वीरता और शौर्य की चर्चाएं भी बढ़ने लगी. इसी बीच पिता जुझार सिंह ने रानी अवंती बाई के विवाह का प्रस्ताव अपने सजातीय रामगढ़, मण्डला के राजपूत राजा लक्ष्मण सिंह के पुत्र राजकुमार विक्रमादित्य सिंह के लिए भेजा जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकारा. विवाह के बाद रानी अवंती बाई सिवनी छोड़ रामगढ़ ,मंडला की कुलवधु हो गई. लेकिन विवाह के कुछ वर्षों के भीतर ही सन् 1850 में राजा लक्ष्मण सिंह का स्वर्गवास हो गया.जिसके बाद राजकुमार विक्रमादित्य सिंह ने राजकाज संभाला. साथ में रानी अवंती बाई रामगढ़ के दुर्ग में अपने दो पुत्रों अमान सिंह और शेर सिंह के साथ सुखी जीवन व्यापन कर रहे थे. लेकिन यकायक थोड़े समयावधि के बाद ही विक्रमादित्य सिंह का स्वास्थ्य भी क्षीण होने लगा और कुछ वर्षों के भीतर ही उनकी भी मौत हो गई.

अब दोनों छोटे राजकुमारों के साथ प्रजा के संरक्षण की जिम्मेदारी रानी अवंती बाई के ऊपर आ गई.डलहौजी ने रामगढ़ को बनाया निशानाएक ओर रामगढ़ और रानी अवंती बाई इस समय एक ओर इन विषम परिस्थितियों से दो-दो हाथ कर रहे थे, तो वहीं पूरे देश में लार्ड डलहौजी हड़प नीति के जरिये तेजी से साम्राज्य विस्तार कर रहा था. उसकी कुदृष्टि अब रानी के रामगढ़ पर थी लेकिन रानी किसी भी कीमत पर अपनी स्वाधीनता का सौदा नहीं करना चाहती थी लेकिन अपनी हड़प नीति से कानपुर, झांसी, नागपुर, सतारा समेत कई अन्य रियासतों को हड़प चुके डलहौजी ने अब रामगढ़ को अपना निशाना बनाया और पूरी रियासत को “कोर्ट ऑफ वार्ड्स” के अधीन कर लिया.

अब रामगढ़ का राजपरिवार अंग्रेजी सरकार की पेंशन पर आश्रित हो गया था. लेकिन बेबस रानी महज अपमान का घूंट पीकर सही समय की प्रतीक्षा करने लगी और यह मौका हाथ आया 1857 की क्रांति में, जब पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का बिगुल फूंक चुका था.अंग्रेजों ने तब तक भारत के अनेक भागों में अपने पैर जमा लिए थे, जिनको उखाड़ने के लिए रानी अवंती बाई ने रेवांचल में क्रांति की शुरुआत की और बतौर भारत की पहली महिला क्रांतिकारी अंग्रेजों के विरुद्ध ऐतिहासिक निर्णायक युद्धों में भाग लिया.

इस बीच रानी के सहयोगी राजा शंकरशाह और राजकुमार रघुनाथ शाह को दिए गए मृत्युदण्ड ने क्रांति की इस ज्वाला को ओर भड़का दिया. कई देशभक्त राजाओं और जागीरदारों का समर्थन रानी को मिल चुका था, लिहाजा उन्होंने अंग्रेजी शासन के खिलाफ बगावत करके अपने राज्य से गोरे अधिकारियों को निकाल भगाया और राज्य की बागडोर फिर अपने हाथ में ले ली. इसकी खबर जब बड़े गोरे अधिकारियों को लगी तो उनके पांव तले जमीन खिसक गई. रानी ने एक-एक करके मंडला, घुघरी, रामनगर, बिछिया समेत कई रियासतों से अंग्रेजों को निकाल भगाया.

लगातार युद्धों के बाद थकी हुई सेना और सशस्त्रो व संसाधनों के अभाव के बीच अंग्रेजों ने फिर दुगनी ताकत से रानी पर हमला किया. रानी इस समय मंडला पर शासन कर रही थी जहां से उन्हें बाहर निकलकर देवहारगढ़ की पहाड़ियों में ढेरा डालना पड़ा.रानी के जीते दुर्गों में लुटपाट के बाद अंग्रेजी सेना ने रानी के पास आत्मसमर्पण का प्रस्ताव भेजा जिस पर मां भारती की इस वीर बेटी की प्रतिक्रिया दी कि – “लड़ते-लड़ते बेशक मरना पड़े लेकिन अंग्रेजों के भार से दबूंगी नहीं” इसके बाद अंग्रेजी सेना ने पूरी पहाड़ी को घेर कर रानी की सेना पर हमला बोल दिया.

कई दिनों तक चले इस युद्ध में कई राजा गोरी सरकार की शरण में चले गए और उनकी सेना का साथ देने लगे. रीवा का नरेश तो पहले ही उनके साथ हो गया था.आखिरकार वो दिन आ गया जो इतिहास में रानी के शौर्य को अमर करने वाला था, 20 मार्च, 1858 का दिन था. युद्ध में कहने को रानी अवंती बाई की सेना मुट्ठी भर थी लेकिन इन वीरों ने अंग्रेजी सेना को पानी पिला दिया. इस शेरनी की सेना के कई जाबाज सैनिक घायल हो चुके थे, गोली लगने स्वयं यह भी बुरी तरह घायल हो चुकी थी.

इस मौके का कायर अंग्रेजी सेना ने फायदा उठाना चाहा लेकिन वो कुछ करते इसके पहले ही वीरांगना रानी अवंती बाई ने अपने अंगरक्षक की तलवार छीनकर स्वयं की जीवन लीला समाप्त कर ली.

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